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यं रक्ष॑न्ति॒ प्रचे॑तसो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा । नू चि॒त्स द॑भ्यते॒ जनः॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaṁ rakṣanti pracetaso varuṇo mitro aryamā | nū cit sa dabhyate janaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यम् । रक्ष॑न्ति । प्रचे॑तसः । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । नु । चि॒त् । सः । द॒भ्य॒ते॒ । जनः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:41» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:3» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:8» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अनेक वीरों से रक्षित भी राजा कभी शत्रु से पीड़ित होता ही है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - (प्रचेतसः) उत्तमज्ञानवान् (वरुणः) उत्तम गुण वा श्रेष्ठपन होने से सभाध्यक्ष होने योग्य (मित्रः) सबका मित्र (अर्यमा) पक्षपात छोड़कर न्याय करने को समर्थ ये सब (यम्) जिस मनुष्य वा राज्य तथा देश की (रक्षन्ति) रक्षा करते हों (सः) (चित्) वह भी (जनः) मनुष्य आदि (नु) जल्दी सब शत्रुओं से कदाचित् (दभ्यते) मारा जाता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि सबसे उत्कृष्ट सेना सभाध्यक्ष सबका मित्र दूत पढ़ाने वा उपदेश करनेवाले धार्मिक मनुष्य को न्यायाधीश करें तथा उन विद्वानों के सकाश से रक्षा आदि को प्राप्त हो सब शत्रुओं को शीघ्र मार और चक्रवर्त्तिराज्य का पालन करके सबके हित को संपादन करें किसी को भी मृत्यु से भय करना योग्य नहीं है क्योंकि जिनका जन्म हुआ है उनका मृत्यु अवश्य होता है। इसलिये मृत्यु से डरना मूर्खों का काम है ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

(यम्) सभासेनेशं मनुष्यं (रक्षन्ति) पालयन्ति (प्रचेतसः) प्रकृष्टं चेतो विज्ञानं येषान्ते (वरुणः) उत्तम गुणयोगेन श्रेष्ठत्वात्सर्वाध्यक्षत्वार्हः (मित्रः) सर्वसुहृत् (अर्यमा) पक्षपातं विहाय न्यायं कर्त्तुं समर्थः (नु) सद्यः। अत्र ऋचितुनु०। इति दीर्घः। (चित्) एव (सः) रक्षितः (दभ्यते) हिंस्यते (जनः) प्रजासेनास्थो मनुष्यः ॥१॥

अन्वय:

अनेकैः सुरक्षितोपि कदाचिच्छत्रुणापीड्यत इत्युपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - प्रचेतसो वरुणो मित्रोऽर्यमा चैते यं रक्षन्ति स चिदपि कदाचिन्नु दभ्यते ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः सर्वोत्कृष्टः सेनासभाध्यक्षः सर्वमित्रो दूतोऽध्यापक उपदेष्टा धार्मिको न्यायाधीशश्च कर्त्तव्यः। तेषां सकाशाद्रक्षणादीनि प्राप्य सर्वान् शत्रून् शीघ्रं हत्वा चक्रवर्त्तिराज्यं प्रशास्य सर्वहितं संपादनीयम्। नात्र केनचिन्मृत्युना भेतव्यं कुतः सर्वेषां जातानां पदार्थानां ध्रुवो मृत्युरित्यतः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात प्रजेचे रक्षण, शत्रूंना जिंकणे, मार्ग शोधणे, यानाची रचना निर्मिती व त्यांना चालविणे, द्रव्यांची वाढ, श्रेष्ठांबरोबर मैत्री, दुष्टांवर विश्वास न ठेवणे, अधर्माचरणाला सदैव घाबरणे या प्रकारे पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणावी. ॥

भावार्थभाषाः - माणसांनी सर्वांत उत्कृष्ट सेना सभाध्यक्ष, सर्वांचा मित्र, दूत, शिकविणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्या धार्मिक माणसाला न्यायाधीश करावे व त्या विद्वानाजवळ राहून रक्षण करून घ्यावे. सर्व शत्रूंना नष्ट करून चक्रवर्ती राज्याचे पालन करावे व सर्वांचे हित करावे. कुणालाही मृत्यूचे भय वाटता कामा नये. कारण ज्यांचा जन्म झालेला आहे त्याचा मृत्यू अवश्य होतो. त्यासाठी मृत्यूला घाबरणे मूर्खांचे काम आहे. ॥ १ ॥